Friday 8 February 2013

बहुत देर आये दुरुस्त आए

आखिर आज लटका एक सरकारी अथिति
१२ साल से तो  कानून ही लटका हुआ था!

कानून की देवी का निर्णय देश हित में था 
फिर इसको किसलिए लेट लटकाया गया?
 

देश के नेता जी क्यों हमदर्दी दिखाकर
अब तलक उसको जीवन दान देते रहे ?


एक-दो को फांसी से यह नासमझी जनता 
उसको झुनझुना दे कर बहलाया गया है!

कौन समझाएगा राजनीती को यहाँ
की फिर चुनावी मुद्दा भुनाया गया है! 





Thursday 7 February 2013

बलिदानी कोंम

सिर कटियोड़ा घणा लड्या
      पण बिना पंगा घमसान मच्या!

             कल्लू कांधे बेठ्या जयमल 
गजब अजूबो समर रच्यो !

        कलम चलाणों जे नहीं सिख्यो 
                 पण सेंला सूं लिखी कहाणी है 

भाटे- भाटे चितोड दुर्ग के 
         हेटे दबी जवानी है !

            जोहर शाका रचा रचा कर 
करी घणी नादानी है !
      आ कोम घणी बलिदानी है !!

          हल्दी घाटी की माटी भी 
                 चन्दन बरनी दीख रही !

ई माटी ने शीश चढाओ
    अण बोली आ सीख सही !

             धर्म कारणे ई माटी में 
लोही की भी नदी बही !

       पुरखा की रीत निभावण  नै 
                  मकवाणों मरतो डरयो नहीं 

छत्र चंवर छहगीर लियां
       यमराज करी अगवाणी है !

           आ कोम घणी बलिदानी है !!

समसाणा की आग समेटी 
            भाला सूं बाटी सेकी है !

                मरूधर धर ने मुक्त कराई
स्वामी भक्ति विशेषी ही !


         दुरगो बाबो घुड़ले सोयो 
                  पीठ ढोलणी राखी नहीं 

डगराँ मगरा भटक सदा ही 
        हिवडे री पीड़ा कण न कही!

                स्याम धर्म ने साध दुरगजी 
राखी पुरखा की सेनाणी है!
         आ कोम घणी बलिदानी है !!

                   लूआं सू तपती ई माटी का 
कण कण में बलिदान भरयो!

         शीश हथेली मेल शूरमा 
                  रण मे ऊँचो नांव  करयो!

सिवां पर डटीया बीरा कै 
          नेड़ो आतो काल डरयो!


          धर्म धरती नै राख़ण सारु 
वीरां नै मिली जवानी है!

        बच्चा बच्चा देश रुखाला
                कीनी घणी कुर्बानी है!
आ कोम घणी बलिदानी है !!

लेखक-: "भंवरसिंह बेन्याकाबास"





















Sunday 3 February 2013

अपने देश मे बेगाने


लो अपने ही शहर मे बिकने लगा इन्सान,   
जेसे की धुप बिना दिखने लगीं परछाईयाँ। 

मानवता के गहन रेशे जेसे जी रहे हैं बंदिशों में,  
भ्रस्ट्राचार के साम्राज्य में सत्ये है अब गर्दिशों में।

फिर से अराजकता की धुंध और महगाई के तीर-भाले,
देखो नेताजी फिर खाने लगे है रिश्वत के गहरे निवाले।

अब तो कतरा कतरा रिसने लगीं है रुसवाइयाँ यहाँ,
चलो अब तो ख़ारिज करो इन देश के बिचोलियों को।

इन अंधेरी बस्तियों को जगमगाने के लिए,
चलो कुछ और जलाये अपनी मशालों को।

गर बदलनी है यह बदरंग सी सूरत इस जन्हा की, 
तो ज़रा नफ़रत से नवाजो इन सियासी नेताओ को।

अक्सर तेरी चीख़ें यहाँ बहुत ख़ामोश सी रहती हैं,
वो वक्त आ गया तेरी चीखों को खुलकर चीख़ना होगा।





"गजेन्द्र सिंह रायधना"