Tuesday 27 November 2012

शहर की सड़के

छोड़ आया गाँव की गलियां  शहर की सडको के लिए 
अजब मुसाफ़िर है जो राह बेच कर मंजिल तक आया!
मुकाम  बना लिया है  माँ बाप से अलग उसने
दुःख -दर्द  ख़रीद लिया है और सकून बेच आया है 

 जहाँ पे दुःख दर्द से  कभी रिश्ते नाते ना थे 
 पर यहाँ का  जश्न भी मातम दिखाई देता है !

शीत की ठंडी आह से भी यहाँ बदन झुलसते हैं
और उनका दावा है कि वो शहरे मिजाज जानते हैं।


 ना तो वफ़ा की आंच और ना ही सगदिली छाव यहाँ 
क्या हो गया है तेरे वादों की धूप,और स्नेह के स्पर्श को 


लगता है ज़िन्दगी बंट गयी है जैसे सैकड़ों टुकडो में
अब तो साथ रहकर भी लगे  ज़िन्दगी अज़नबी सी 

 अतीत के आईने से एहसास होता है जिन्दगी का  
यूँ लगे है जैसे कि ज़िन्दगी तो जी ही नहीं रहा हु 

न तो मिलने कि ख़ुशी है न बिछड़ जाने का ग़म
जाने  किस मोड़ पे आकर रुकी है ज़िन्दगी

अब तो यहाँ हर तरफ वीरानियाँ का ही साथ है,
खुशीया तो अब ख़्वाबों और ख़्यालों में ही सजी है 



Friday 23 November 2012

      "आम आदमी "
   
आम हु आम ही रहने दो खास ना बनावो मुझे  
कुछ सपने मेने भी बुने थे, उनको हकीकत ना बनावो 
     
  लुटेरो के देश में आम की तरह चूसा जाता हु  
खास बना के फिर वो मुझे आम ही बना देते है 

चलो खास बनने से पहले आओ कुछ सपने चुने ,
उनकी सुन ली हमने अब कुछ मन की सुनें.

आ गई वो घड़ी की हम वगावत को चुनें.
ग़रीबों को आम कहने वालो को आम बनाये  




आम आदमी 



   "संसद "   
             
यहाँ पर हर दिन इक नया चक्रव्यूह रचते है,
जिसे अभिमन्यु बन कर हमेशा भेदने की कोशिश करता है,
    बहुत छल से रचे जाते हैं इतने गहन आवरण,
उन्हें आम आदमी भेदने की नाकाम कोशिश करता है।







    " नेताजी "
कहने को तो यह सख्श बड़ा सफ़ेद -जुबान है
पर उसके दिल में एक कोयले की खान है 
काबिलिय तारीफ हैं इनकी यहाँ बेशर्मियाँ भी
कितना भी ज़लील करो,बड़ी सख्त जान है 



नेताजी 












इन कविताओं के शिषको के  इर्द गिर्द ही सामजिक प्राणी का जीवन घूमता है,  जिन्हें मेने अपनी कविता के
माध्यम से इन तीनो का चरित्र चित्रण करने का प्रयास किया है!
   


Friday 9 November 2012

अस्तित्व

गर मे नहीं   तो तुम भी नहीं  
कैसे बचोगे गर मार डालोगे मुझे ?

बेटी रहेगी तो सृष्टि रहेगी !
और बढेंगी रौनकें इस जहां मे 

बिना मेरे अस्तित्व ना रहेगा तेरा 
बिचलित करती है यह तेरी निति 
हम सर्मिदा है तेरे इस नियति पर!

अपने वजूद की बाते करने वाले ?
बहता खून बनकर धमनियों में मेरा,

लबों की ख़ामोशी बहुत कुछ कह गयी
बेटी  हु ना  इसलिए सब कुछ सह गयी !


बहुत गहरा है मेरे होने में तेरा होना।
प्रक्रती का गूढ़ रहस्य है? रहस्य ही रहने दो.














दीपावली की हार्दिक सुभकामनाओ  के साथ!  


Wednesday 7 November 2012

अधुरा प्यार


प्यार से देखा नहीं  एक बार भी मुझे,
ज़िंदा हूँ उसी आश पर की कभी तो वो दिन...

तेरी ख़ामोशियों में गोते लगा लगा कर
दर्द के मोती के सिवा मिला क्या इस ख़ोज में.

लाख ढूंढा पर ख़ुशी मिलती नहीं तेरे दिल मे
ज़िन्दगी हमने टिकाई है तेरे स्नहे के सेज पर.

यूँ तो जिन्दगी मे थी बारात फूलों की मगर,
 फिर भी दिल हमारा था काँटों की सेज पर.

मन में था विश्वास मुठ्ठी का जेसे रेत से,
मगर तुम लिख ना पाए  नाम हमारा बारम्बार.


  वो दिन आया भी  इतना हंसी की 
तुम सब कुछ छोड़कर ख़ुद  मेरे पास आ गए।


ता उम्र  तरसते रहे हम आपके लिए  
आप आये तो हम इस दुनिया से जाने को थे!