Tuesday 4 December 2012

चुनावी माहोल

चुनावी माहोल 


फ़िर वही नेता ,                       
फिर वही मतदाता ,
पर कुछ लग रहा  नया सा।

ये सर्द चुनावी रातें,
बढ़ाती जा रही हैं, 
हार जीत की गर्मी।

शहर का यह,
बूढ़ा सा ये घंटा-घर,
पहर बांटे।

खोया है पूरा शहर,
सपनों की भीड़ में,
हम भी गुम।

यह बंजारा मन,
भटके पल-पल ,
चुनावी गलियों में। 

हार कर कोई जीत गया,
कोई जीत कर हार गया 

 अब ना यह नेता जी आयेगे, 
ना यह सर्द रात आयगी पाँच साल 


यह कविता चुनावी माहोल की छोटी सी झलक को दिखाती है, परिणाम के समय जो एक आम मतदाता और नेताजी की व्याकुलता को दर्शाती है! 


4 comments:

Rajput said...

लाजवाब, शानदार रचना

Unknown said...

Zindagi hai kalpanao ki jang
kuch to karo iske liye dabaang
jiyo shaan se bharo umaag..
lahrao sabke dil me desh ke liye tarang…..

Gyan Darpan said...

शानदार रचना

Unknown said...

हार कर कोई जीत गया,
कोई जीत कर हार गया

लाजवाब रचना। ....

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