Sunday 30 December 2012

कहाँ तक गिरेगे



यह जिन्दगी भी क्या जिन्दगी 
इज्ज़त तो है पर पानी पानी है,

आज के खुले  दोर मे 
ये शर्म-हया कोरी बेमानी है।

आज ज़िंदा होकर भी मुर्दा हो  ,
और कहते हो यह तो नादानी है?

तुम्हे अपनी सभ्येता से क्या लेना- देना 
तू तो कल की जन्मी सभ्येता की दीवानी है    



किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ यहाँ।
फिर  चाहे  वो कोई बारात हो या वारदात 


यहाँ की  हवाओं में भी दर्द और पीड़ा है,
लगता है की पराई धरती, अंजान देश?




एक खँडहर की भांति है मेरी संस्क्रती  
अब आदमी जंगली और मेरा आंगन जंगल 



Tuesday 25 December 2012

स्तुति जमवाय माता

जमवाय माता "कुलदेवी कछवाहा राजपूत "





म्हारी माता ए जमवाय, थारो मोटोड़ो दरबार !
म्हारो हेलो सुणो !!

दोसा सू आया दुल्हराय, हारोड़ी फोजा ने जिताय!
बुढ़िया को भेष बनाय, राणी को चुडलो अमर करयो !
म्हारो हेलो सुणो !!
कामधेनु बण दोड़, माता सिंघ पीठ ने छोड़ !
रण मे इमरत दियो निचोड़ , थणा सूं दूध झरयो !
म्हारो हेलो सुणो !!
तूँ कछवाहा कुल की जोत, तू अरियाँ द्लरी मोंत!
"काकिल" हिवडे करयो उघोत, थापी गादी आमेर की!
म्हारो हेलो सुणो !!
बेठी डूगर- घाटी बीच मायड कोट गोखड़ा खीच!
बेठ्या सेवक आख्याँ मीचं धाम 'बुढवाय' थप्यो !
म्हारो हेलो सुणो !!
मांची को बणायो रामगढ़, माता सिंघ पर चढ़ !
सारा असिदल दाब्या खड़ 'बुढवाय' सूं जमवाया बणी!
म्हारो हेलो सुणो !!
थारे दाल भात रो भोग, बणावे सगळा लोग!
कट्जा काया का भी रोग, चढ़ाता चिटकी चूरमो!
म्हारो हेलो सुणो !!
जात जडूला बेसुमार ल्यावे सारा ही परिवार !
गोरडूयाँ करसोला सिंगर बाधावा गावे मात का!
म्हारो हेलो सुणो !!


कीरत रो काई बखाण (माँ) भगतां रा मना ने जाण!
लीना चरणां मे सुवान भगती रो बरदान दियो !
म्हारो हेलो सुणो !!
तू छे शरड्णाइ साधार, अब तो भव सागर सुं तार!
लेवो डूबतडी ऊबार, नेया म्हारी मझधार सुं! 
म्हारो हेलो सुणो !!
सेवक ऊभा थारे द्वार , गावे विनती बारम्बार !
तू तो भगतां की आधार, सुहगया की गोद भरे! 
म्हारो हेलो सुणो !!




Monday 24 December 2012

सर्द का सितम

-:सर्द का सितम:- 

अब सर्द होने लगा है मौसम का रुख़  
कोहरा फिर से घना होने लगा है यहाँ

धुंध की दीवार के पीछे धूप की चाहत है!  
निगोड़ी ठण्ड की कैसी-कैसी है परियोजनाए

स्नेह के दिन हुए फिर शीत के हवाले,
चारो तरफ सर्द हवाओं की बस्तियां बसी है।

ज़िस्म छलनी है तेरे शीत अह्साहस से
कौनसी ज़िद है कि ये सांस अभी तक ज़िन्दा है,

है चारो तरफ साज़िशें मुझे मिटने की 
क्यों मेरी ज़िन्दगी से इतनी रंज़िशें है?

तेरी सर्द हवाए मुझे एक सन्देश दे जाती है
की ज़िन्दगी में यहाँ दर्द और यातनाएं भी हैं!




Thursday 20 December 2012

अस्मत

कैसे दिखाऊ इस दर्द को, हर अंग जैसे चीख़ता है,
अब तो ज़िन्दगी का हर लम्हा लहूलुहान दीखता है,
ये कैसा देश है दरिंदो का यारो, यहाँ पर,
अस्मिता को रौंदने का हुनर  क्यों सिखाया जाता है?

पत्थरों के शहर में पत्थर दिल के लोग बसते है यहाँ 
फिर अस्मिता का खेल खेला इन पत्थरो ने मेरे साथ ,
फिर मेरी ज़िन्दगी आतताइयों की भेंट चढ़ी 
मेरे दर्द  की चीख़ सुन ये दिशाएं तक मौन,
मानव है जो मौनवर्त और मानवता है अचेत,




ढेर होते दिखे सपने दहशत भरी आंखो को 
कराह भी अब मजबूर हुई दर्द मे छिपने को 

चुन चुन कर मसला गया अस्मत की पंखुड़ियों को 
आत्मा तक छिल गई तरस न आया दरिंदों को 

महफूज कहाँ हर माँ ने समेटा आँचल में बेटी को 
हेवानियत फेली दिखती चहु और केसे बचाऊँ उसको 


अभी सनसनी कल सुनी हुई बीती बात होगी परसो
जख्म गहरे तन पर मगर मन पर निशान उम्र भर को







Monday 17 December 2012

आम आदमी का दर्द

                                                       
                                                          आम आदमी का दर्द



     तुझसे हमको क्या  मिला है ,
     जिसका हमें गिला शिकवा है ।

      बात तो  सिर्फ एक रोटी की थी,
हम ने कब चाहा की मीठे पकवान हो।


क्यों टूटे सपनो को सवारने की सज़ा देते हो,
रोशनी में भी अंधेरों के दीपक जला लेते हो,



वोट देकर क़र्ज़ दिया था,अपने को गिरवी रख कर
अब तुम चूका रहे हो हमें महगाई की क़िश्तें देकर।




वक़्त को भी अपना कहु गर ,
इसने मे भी कोई ज़ख्म सिला है तेरा।



अपने सपनों में ही शायद खुश हू ,
तेरे हकीकत के काटो वाले फूलो से।










Wednesday 12 December 2012

"अधूरी चाहत"

"जख्म"


 क्यों बेवजह जख्म पे मरहम लगाते हो ,
दर्द जख्म का कभी मिटता नहीं मिटाने से।
फिर वही ज़ुदाई के पलो का जिक्र आते ही
पुराने ज़ख्म जिंदा हुए,जेसे पतझड़ मे फूल
एक सहारा है ज़िंदगी मे बस तेरे जख्मो का
जिसे मे समझ रहा हू प्यास का तोहफा सा।
अब ज़िस्म तो दर्द के वीराने के साये में,
बस यूही जिन्दगी ज़िन्दा किसी बहाने से।
चाहे ख़ुशी के फूल हो या गम के बादल,
कोई उम्मीद नहीं रखते मेरे जीवन मे।

 "अधूरी चाहत"

बहुत उड़ने लगी है तू,ज़रा सम्हलकर रहना
कि पर कतरे गए हैं यहाँ पर ऊँची उड़ानों के
तेरे सीने में भी कही जज्बात ज़िन्दा होगे,
 तू होसलो के पंख लगा कर आसमान छू ले
ये माना कि तुझे ख़ुद पर बड़ा ऐतबार है लेकिन
बहुत मुमकिन नहीं ये ख़्वाब तेरे आसमानों के



के







Monday 10 December 2012

थानेदार कवि

"थानेदार कवि"  

आपके मन में विचार आया होगा की यह क्या शीर्षक है! पुलिस और कवि का कही मेल मिलाप नहीं है आज के जमाने के कवि सिर्फ कविता की ही रचना करके अपने और अपने परिवार का भरण पोषण नहीं कर पता है! वर्तमान के समय के कवि या तो अध्यापक होते है या फिर डॉक्टर अन्य कुछ नोकरी करते  है पुलिस सेवा करने वाले व्यक्ति को कविता का वाचन करना अचरज की बात ही होगी!
क्यों की पुलिस का नाम आते ही जहन मे एक अलग सी छवि आ जाती है,  कविता और काव्यो की जगह पर राइफल और बदमाशो के साथ दो दो हाथ करते है और वो २४ घंटे ही ड्यूटी पर रहते है इस लिए थोडा अलग सा लगता है! पर मे आज आपका जिस व्यक्तित्व से परिचय करवा रहा हु वो ड्यूटी के भी सक्त है और कविता मे तो वो निपुण है ही  नागोर जिले की डीडवाना तहसील के छोटे से गावं रुंवा के रहने वाले महावीर सिंह "यायावर "
आज वो दोहरी भूमिका निभा रहे है प्रसासनिक सेवा के साथ साथ सामाजिक सेवा के लिए भी तत्पर रहते है, इनकी कविताओ मे वीर रस और समाज मे व्यापत बुराइयों,  कुपर्था की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाली होती है! 

यह कुछ कविताये है जो यायावर के कलम से निकली है 



1) जिंदगी की दिशा
कई बार रास्ते तय करते है
तो कई बार दशा ?
यह सब निर्भर है आप पर,
कि आप रास्तो से तय होते हो या
परिस्थितियों से ?
मुट्ठी में रेत रोकने के लिए,
प्रयासरत हूँ मै तो,
एक अरसे से ?
लोग समझते है,
इसे मेरा पागलपन ?
पर मेरी तपस्या की
लगन.........?
निश्चित रूप से
मेरे लक्ष्य को ओर है.
लोग बस वहीँ तक अपने
पग चिन्ह बना पाएंगे ?
जहाँ तक शाम है,भोर है.
ये मै जनता हूँ भली भांति,
यह पगडण्डी
मुझे ले जाएगी वहां,
जहाँ क्षितिज का अंतिम छोर है ?
एक ही पल में
उसके अस्तित्व को नकारना ?
मेरे लिए तो संभव नहीं है.
जब तक की ढूंढ़ न लूँ
निर्णय कैसा ?
शीघ्रता किस बात की
आज नहीं तो कल,
इस जन्म में नहीं तो,
किसी और जन्म में ?
उस प्रकाश पुंज में
समाहित होगा
ये अन्धकार
और पूर्ण होगी
यायावर कि साधना.


2) आज शहर में निकला ढूंढ़ने,


कहीं तो मिले सावन के झूले ?

मेरा प्रयास व्यर्थ हुआ,

ना सावन के झूले,

ना गीतों की टेर,



और न रंग बिरंगे परिधानों में
अल्हड मस्ती का अनुभव.

धुप मिली धूआ मिला,

पर न मिली सावन की बुँदे.

फिर सोचा मन ने मन में ही,

ये लोग अलग है,

मेरे गाँव से,

ये क्या जाने भारत के रंग ?

भारत तो गाँवो रह कर,

पिछड़ गया इन पढ़े लिखो से.

ऊँचे ऊँचे पत्त्थर के घर,

काली सड़के उलझी उलझी,

आस पडोसी अनजाने से.

रिश्ते नाते सपनों जैसे,

टीवी पर त्यौहार मनाते

लोग यहाँ के बड़े निराले ?

समझ ना पाया रीति नीति,

मै गाँव का पिछडा दकियानुसी ?

वेलेंटाइन डे और हैप्पी क्रिशमिस

बाजारवाद की चका चौंध में,

राखी, तीज के अर्थ व्यर्थ है ?

आज शहर में निकला ढूंढ़ने...........यायावर.





"यायावर"















Tuesday 4 December 2012

चुनावी माहोल

चुनावी माहोल 


फ़िर वही नेता ,                       
फिर वही मतदाता ,
पर कुछ लग रहा  नया सा।

ये सर्द चुनावी रातें,
बढ़ाती जा रही हैं, 
हार जीत की गर्मी।

शहर का यह,
बूढ़ा सा ये घंटा-घर,
पहर बांटे।

खोया है पूरा शहर,
सपनों की भीड़ में,
हम भी गुम।

यह बंजारा मन,
भटके पल-पल ,
चुनावी गलियों में। 

हार कर कोई जीत गया,
कोई जीत कर हार गया 

 अब ना यह नेता जी आयेगे, 
ना यह सर्द रात आयगी पाँच साल 


यह कविता चुनावी माहोल की छोटी सी झलक को दिखाती है, परिणाम के समय जो एक आम मतदाता और नेताजी की व्याकुलता को दर्शाती है!