Friday 19 October 2012

वाह वाह क्या महगाई आई.....


यह कविता आज की महगाई की और ध्यान आकर्षित करने वाली है !



खून हुआ पानी. और पानी  हुआ पसीना,
बस अब  जलते है दिल और खामोस मन,
स्रोत-स्रोत शिप्रा प्यासी क्या महगाई  आई.

हाथ सबेरे मलते,दिल पुरे दिन धू-धूकर जलते,
घर बार  बने है अब  फंदे फांसी के  क्या महगाई आई.
क्या आटा क्या दाल सब आख दिखने लगे है 
बूंद बूंद को हम प्यासे मेरे  नेता  भाई,
भूख करती हाहाकार  क्या महगाई  आई.


भूख लाचारी लपटें  जसे चीलों सी,
अब तो माँ की ममता भी सूखी झीलों सी
वाह वाह  क्या महगाई आई.....



ज़िन्दगी के यह दिन आये लोग कितने बेबस पाये
भूख और प्यास की सलाखों पर यहाँ इंसान लटकाये 

वाह वाह  क्या महगाई आई.


जब अँधेरा हो गया सता के गलियारों में
तब  झोपड़े चुन-चुन कर जलाये गए हमारे

वाह वाह  क्या महगाई आई.....




हर  शाम को ग़मगीन करके युही सो जाते है हम 
कल सुबह के हिस्से में अच्छा सा कोई काम आ जाएँ,
वाह वाह  क्या महगाई आई....

इस कविता का शीर्षक "वहा वहा क्या महगाई " SAB टेलीविजन पर एक परोग्राम आता है उसका नाम है "वाह वह क्या बात है " उसके शीर्षक से लिया है क्यों की उस कार्यकर्म मे हस्ये कलाकरों द्वारा सुन्दर सुन्दर रचना और कवितायों से दर्शको को हसाया जाता है! आप को तो पता ही है आजकल हँसाने के नाम पर भी कितनी अश्लीलता दिखाई जाती है !




*****गजेन्द्र सिंह रायधना****








5 comments:

Rajput said...

महंगाई ने तो हर तबके को नाकों चने चबाने पे मजबूर कर दिया है. खुबसूरत रचना

Unknown said...

bhut hi acha likha hai

Rohitas Ghorela said...

सही फ़रमाया आपने
देश का भट्टा बिठा दिया इस महंगाई ने तो
.. सुन्दर प्रस्तुती
बधाई स्वीकारें। आभार !!!



Sub TV मेरा पसंदीदा चेनल है उसमे अश्लीलता रति भर भी नही दिखाई जाती।!!

virendra sharma said...

मेंहगाई से पैदा विद्रूप का सुन्दर चित्रण .

Unknown said...

आप सभी का बहुत बहुत आभार !

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