Tuesday 30 October 2012

सपने मे भ्रस्टाचार

              कल रात
     मायावी भ्रस्टाचार को
      जला लिया था मैंने
         अपने सिरहाने...

सुनहरे कल  का तकिया लगा 
     सो गए थे ख़्वाब मेरे,
     नींद भटकती फिरी
   कहीं सता के गलियारों  में,
    उज्वल कल था, रात थी,
         और करवटें...

    मन की किताब में
       महकती रहीं 
       पुरानी यादें,
     और मन कहीं 
   परछाइयों के देश में
    तलाशता रहा 
   रोशनी के बिम्ब...

      कत्ल की  रात थी 
        तिलिस्मी चाँद था
   और किसी नये सुबह  को
      बाँहों में भर लेने को
        आतुर मेरा मन था ,

     और  एक एक कर
       कई ख्वाब 
    मेहमान बनकर आए...

 सुबह की ठंडी हवा सहला गयी,
    सपनो का महल सजाया था  
       आखिर  टूटना ही था,  


आप सोच रहे हो की कविता का यह क्या शीषक है "सपने मे भ्रस्टाचार" पर मेरे मायने  में इससे अछा शीषक नहीं होगा! जो सपने में तो कम से कम भ्रस्टाचार को ख़त्म कर सके !
इस कविता के माध्यम से एक आम आदमी अपने सपनो मे नदी के लहरों की तहर सुनहरे कल के हिचकोले लेते होए भ्रस्टाचार और अराजकता को समूल नाश करता होवा सांति रूपी समुद्र  मे समां जाता है !


Friday 19 October 2012

वाह वाह क्या महगाई आई.....


यह कविता आज की महगाई की और ध्यान आकर्षित करने वाली है !



खून हुआ पानी. और पानी  हुआ पसीना,
बस अब  जलते है दिल और खामोस मन,
स्रोत-स्रोत शिप्रा प्यासी क्या महगाई  आई.

हाथ सबेरे मलते,दिल पुरे दिन धू-धूकर जलते,
घर बार  बने है अब  फंदे फांसी के  क्या महगाई आई.
क्या आटा क्या दाल सब आख दिखने लगे है 
बूंद बूंद को हम प्यासे मेरे  नेता  भाई,
भूख करती हाहाकार  क्या महगाई  आई.


भूख लाचारी लपटें  जसे चीलों सी,
अब तो माँ की ममता भी सूखी झीलों सी
वाह वाह  क्या महगाई आई.....



ज़िन्दगी के यह दिन आये लोग कितने बेबस पाये
भूख और प्यास की सलाखों पर यहाँ इंसान लटकाये 

वाह वाह  क्या महगाई आई.


जब अँधेरा हो गया सता के गलियारों में
तब  झोपड़े चुन-चुन कर जलाये गए हमारे

वाह वाह  क्या महगाई आई.....




हर  शाम को ग़मगीन करके युही सो जाते है हम 
कल सुबह के हिस्से में अच्छा सा कोई काम आ जाएँ,
वाह वाह  क्या महगाई आई....

इस कविता का शीर्षक "वहा वहा क्या महगाई " SAB टेलीविजन पर एक परोग्राम आता है उसका नाम है "वाह वह क्या बात है " उसके शीर्षक से लिया है क्यों की उस कार्यकर्म मे हस्ये कलाकरों द्वारा सुन्दर सुन्दर रचना और कवितायों से दर्शको को हसाया जाता है! आप को तो पता ही है आजकल हँसाने के नाम पर भी कितनी अश्लीलता दिखाई जाती है !




*****गजेन्द्र सिंह रायधना****








Friday 5 October 2012

अजन्मी लड़की का गुनाह

यह कविता उन अजन्मी लडकियों की है जिन्हें जन्म से पहले ही मोंत की सजा सुना दी गयी थी,और उन्हें अपने गुनाह का भी पता नहीं है !


मैं बेगुनाह हूँ तो फिर मुझको सज़ा क्यों न हो,                     
बेटी हु ना यही तो मेरा सबसे बड़ा गुनाह  है 

मे एक अँधेरी रात सी हु,जो सिर्फ अँधेरा ही देती है 
तुम्हे तो चाहिए कुलदीपक, जो तेरे घर को करे रोशन
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर.....

अक्स तो मे तेरा ही हु और खून भी तो तेरा ही हु माँ  
फिर भी तू अपने अस्तित्व को  मिटाना चाहती है
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर..........


यह फेसला तेरा नहीं है,क्यों की फेसले तो तुम ले ही नहीं सकती,
पर मुश्किल यह की छिपाकर भी नहीं रख सकती ज़माने से
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर.........

मे भी अंधेरों की गुफा से जीवन की रोशनी चाहती हु 
तेरी कोख से जन्म लेकर मे भी जानु जीवन क्या है
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर..........


बेटी तो हमेसा ही परेशानी की एक कड़ी रही है माँ
पर होती है अपनी  ही अस्तित्वहीन परछाई,
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर........

तुने माना है कि मैं कोई ग़ैर नहीं हूँ मेरी  माँ
मेरे सपनों को भी थोड़ी जगह दे दे जीवन मे तेरे
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर......



 तेरी ख़ामोशियाँ ज़माने को बहुत कुछ कहना चाहे हैं,
 फ़ुरसत कहा है ज़माने को जो तेरी ख़ामोशियों को सुन ले
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर........


कब तक मेरा यूही कोख मे कत्ल करवाती रहोगी  माँ
और कब तक मुझे बिना जन्मे ही मरना होगा मेरी माँ
मैं बेगुनाह हूँ तो फिर........


मैं बेगुनाह हूँ तो फिर मुझको सज़ा क्यों न हो,
बेटी हु ना यही तो मेरा सबसे बड़ा गुनाह  है