Monday 14 April 2014

गाँव का दर्द

गांव हुए हैं अब खंढहर से, 
लगते है भूल-भुलैया से।


किसको अपना दर्द सुनाएँ,
प्यासे  मोर पप्या ?

आंखो की नज़रों की सीमा तक,
शहरों का ही मायाजाल है,
न कहीं खेत दिखते,
न कहीं खुला आसमान।

मुझे लगता है कोई राह तकता,
वो पानी का पनघट और झूले।

हरियाली तो अब टीवी मे दिखती,
जंगल पत्थर ओर कंक्रीटों मे बदले

विरह के दफ्तरो मे अब केवल,
कुछ दर्द की हैं फ़ाइलें

शायद मुझ बिन,
सूना है माँ का आँगन।

  
मरी ज़िंदगी को "जी" रहे हम, 
 इस आशा मे कभी तो गांव मे रहूगा।

दिल के कोने मे कही बेठा गाँव 

रोज़ गांव लौटने को कहता है।  

Sunday 5 January 2014

शीत की प्रीत


आज शीत ने फिर मुझ से प्रीत की है 
क्यो उससे फिर अनुराग बढ़ता जा रहा है




यौवन स्नेह सी बांध रही है यह शीत लहर मुझे   
ओर फिर से चहतों का विस्तार बढ़ता जा रहा है    

धुंध धीरे धीरे अपने आगोश मे ले रही  
जेसे बाहो की परिधि हो मेरी माशूका की 


आज सूरज और सर्द में देखो लगी है होड़ सी जाने.... 
ओर धीर धीरे धुंध को डसने लगी रोशनी सूरज की 

 ठंडी हवाए फिर धूप के गर्म सोल मे बदल गयी 
ओर फ़िज़ाओं ने उठा दी धुंध मे ख़्वाबों की इक चादर सी 




Sunday 15 December 2013

कोम की चेतावनी

तुम बेशक हो सरताज तो हम यहाँ बुनियाद हैं,
हमसे ही है यह सरताज जो सदियों से आबाद है। 

रोटियों का दर्द लेकर जी रही है यह क़ौम,
कब तलक करते रहेगे, व्यर्थ की फ़रियाद ?

और कितना इस क़दर भरते रहोगे ज़ेब को,
तुम्हारा कुछ हो न हो पर कोम तो बर्बाद हो रही।

तुमने चाहा हम गुलाम बन गये अपनी कोम के लिए
और नारे हम लगाते रहे आज़ाद है हम।


किश्तों की ज़िंदगी सा घटता कोम का जीवन 
कल की बात छोडो तुम,  ज़ख्मी है हम आज

पर अब सर उठाने लग गई हैं मशालें हर तरफ,
अब न सम्हले तो यहाँ सबकी होगी मुर्दाबाद ।



"गजेन्द्र सिंह रायधना"